थोड़ी निराश हैं लवलीना-
"मैं अपनी रणनीति पर अमल नहीं कर सकी, वह मजबूत थी, मैंने सोचा कि अगर मैं बैकफुट पर खेलती हूं, तो मुझे चोट लग जाएगी, इसलिए मैं आक्रामक हो गई लेकिन यह वैसा नहीं हुआ जैसा मैंने सोचा था। मैं उसके आत्मविश्वास पर प्रहार करना चाहता थी, पर हुआ नहीं। समस्या यह थी कि वह थकी नहीं।"
बोरगोहेन का पदक फिर भी एक ऐतिहासिक उपलब्धि है क्योंकि यह नौ वर्षों में मुक्केबाजी में देश का पहला ओलंपिक पोडियम फिनिश था और विजेंदर सिंह (2008) और एमसी मैरी कॉम (2012) के बाद केवल तीसरा था।
उन्होंने कहा, "मैं हमेशा ओलंपिक में प्रतिस्पर्धा करना और पदक जीतना चाहती थी। मुझे खुशी है कि मुझे पदक मिला लेकिन मैं और अधिक प्राप्त कर सकती थी। मैंने इस पदक के लिए आठ साल तक काम किया है। मैं घर से दूर रही हूं, अपने परिवार के साथ नहीं रही हूं, जो मैं चाहती हूं वह नहीं खाया।"
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, असम के मुख्यमंत्री ने दी लवलीना को कांस्य पदक जीतने की बधाई
2012 से कभी छुट्टी नहीं ली, अब लेंगी-
इस युवा खिलाड़ी ने 2012 में मुक्केबाजी में कदम रखा था। वह पहले से ही दो बार की विश्व चैंपियनशिप की कांस्य पदक विजेता हैं।
उनकी मां का गुर्दा प्रत्यारोपण हुआ था, जब बॉक्सर 2020 में दिल्ली के एक राष्ट्रीय शिविर में थीं।
उन्होंने कहा, "मैं एक महीने या उससे अधिक का ब्रेक लूंगी। जब से मैंने बॉक्सिंग शुरू की है, तब से मैं कभी छुट्टी पर नहीं गई, मैंने तय नहीं किया कि मैं कहां जाऊंगी, लेकिन मैं निश्चित रूप से छुट्टी लूंगी।"
यह पदक न केवल उनके लिए बल्कि असम के गोलाघाट जिले में उनके पैतृक गांव के लिए भी जीवन बदल रहा है और अब उनके घर तक जाने के लिए एक पक्की सड़क बनाई जा रही है।
इस अनुभव ने कॉन्फिडेंस दे दिया है- लवलीना
जब उसे इसके बारे में बताया गया तो वह हंस पड़ीं और केवल इतना कहा, "मैं बहुत खुश हूं कि सड़क बन रही है। जब मैं घर जाऊंगी तो अच्छा लगेगा।"
उन्होंने कहा, "मैं बहुत आत्मविश्वासी मुक्केबाज नहीं थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। मैं अब किसी चीज से नहीं डरती। मैं इस पदक कोअपने देश को समर्पित करती हूं। मेरे कोचों, महासंघ, मेरे प्रायोजकों ने भी मेरी बहुत मदद की है।"
बोरगोहेन ने विशेष रूप से राष्ट्रीय सहायक कोच संध्या गुरुंग को उनका समर्थन करने के लिए धन्यवाद दिया और अनुरोध किया कि उन्हें इस साल द्रोणाचार्य पुरस्कार दिया जाए।