1992 और 2019 का फॉर्मेट रहा है टॉप-
अभी तक 1992 और 2019 के विश्व कप को काफी तारीफ मिली है क्योंकि इनमें सीमित संख्या में टीमें थी और सब ने एक दूसरे के खिलाफ कड़े मुकाबले खेले थे। बात 1992 की विश्व कप की करते हैं जब केवल 9 ही टीमें थी और प्रत्येक ने एक दूसरे के खिलाफ मुकाबला खेलते हुए अंतिम चार में जगह बनाई थी। इस खेल का फॉर्मेट ऐसा था कि यह कमजोर टीम भी वापसी कर सकती थी यही वजह थी कि जिस पाकिस्तान पर किसी ने दांव नहीं लगाया था वह खिताब ले उड़ी। ठीक इसी तरह का फॉर्मेट 2019 के विश्व कप में भी इस्तेमाल किया गया था जहां पर 9 की जगह पर 10 टीमें थी। जबकि 2015 विश्व कप में 14 टीमों ने भाग लिया था लेकिन कई एकतरफा मुकाबले हुए जिसमें कमजोर टीमों ने खराब खेल दिखाया। इसके बाद आईसीसी ने फैसला किया कि अपने बड़े टूर्नामेंटों में वह केवल गुणवत्ता का क्रिकेट ही लोगों के सामने दिखाना चाहेगी।
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क्या सुपर सिक्स फॉर्मेट विश्व कप का भविष्य है-
हालांकि समय काफी तेजी के साथ बदल गया है और अब खेल को ग्लोबल बनाने के डिमांड पहले से कहीं अधिक है। इंटरनेट के साथ तकनीकी क्रांति भी आई है जिसके चलते दुनिया वास्तव में छोटी हो गई है। यही कारण है कि टी-20 विश्व कप में भी टीमों की संख्या बढ़ाकर 20 कर दी गई है। हालांकि अभी 2021 और 2022 में जो प्रतियोगिता T20 वर्ल्ड कप में खेली जाएगी उसमें 16 टीमें भाग लेंगी जबकि 2024 में इस प्रतियोगिता में 20 टीमें भाग लेंगी। 2027 और 2031 के वनडे विश्व कप में आप 14 टीमों को देखेंगे जिसमें से 7 टीमों के दो ग्रुप बनाए जाएंगे और प्रत्येक ग्रुप से 3-3 टीमें सुपर सिक्स के लिए क्वालीफाई करेंगी जहां पर वह दूसरे ग्रुप की बाकी तीन टीमों के साथ मुकाबला खेलेंगी। सुपर सिक्स में टॉप की 4 टीमें सेमीफाइनल में प्रवेश कर जाएंगी।
1999 और 2003 के अलग सुपर सिक्स सिस्टम-
यह देखने में तो लुभावना फॉर्मेट लगता है लेकिन समस्याएं इसमें काफी ज्यादा है क्योंकि यहां पर गुणवत्तापूर्ण क्रिकेट देखने को नहीं मिलता और कई बार टीमों के भाग्य का फैसला उनके खेल से ज्यादा बाहरी कारकों पर बहुत टिका होता है। आपके पास कमजोर टीमें हमेशा मौजूद रहेंगी जिसके चलते उनको हराना हमेशा आसान रहेगा। सुपर सिक्स फॉर्मेट की समस्या यह है कि इसमें पहले राउंड में जो मुकाबले खेले जाते हैं उसमें ग्रुप स्टेज में 3 टीमें तो कमजोर के तौर पर मौजूद होती ही हैं। दूसरी समस्या यह है कि ग्रुप स्टेज के अंकों को सुपर सिक्स में भी खींचकर ले जाया जाता है जो कि थोड़ा सा मामले को और भी पेचीदा बना देता है। 1999 और 2003 के विश्व कप में भी यही सिस्टम अपनाया गया था। 1999 में एक ग्रुप से जो 3 टीमें सुपर सिक्स के लिए क्वालीफाई करती थी उसमें से एक टीम को बाकी दोनों क्वालीफाई करने वाली टीमों के खिलाफ किए गए प्रदर्शन के आधार पर पॉइंट दिए जाते थे जो कि सुपर सिक्स स्टेज में जाकर जुड़ जाते थे। उसके बाद पहले के पॉइंट और सुपर सिक्स में जीते गए मैचों के पॉइंट के आधार पर आप सेमीफाइनल का सफर तय करते थे।
आईसीसी कौन सा प्वाइंट सिस्टम अपनाएगी-
हालांकि 2003 के संस्करण में आईसीसी ने और भी खराब फैसला किया जब सुपर 6 में क्वालीफाई करने वाली टीमों के लिए राउंड वन में खेले जाने वाले प्रत्येक मुकाबले के पॉइंट भी जोड़ दिए गए। आईसीसी ने अभी तक यह नहीं बताया है कि 2027 और 31 के विश्व कप में कौन सा सिस्टम अपनाया जाएगा। यह तो सभी जानते ही हैं कि आईसीसी के लचर फॉर्मेट का फायदा उठाते हुए केन्या ने बहुत अच्छा खेल दिखाए बिना भी 2003 के विश्व कप में सेमीफाइनल तक का सफर तय किया था जहां पर वे भारत के हाथों बुरी तरह पिटकर हारे थे। कई बार टीमें जितनी ज्यादा होती है कई बार उतना ही खराब क्रिकेट विश्व कप में देखने को मिलता है और दर्शकों की संख्या भी उसी मुताबिक घट जाती है क्योंकि विश्वकप में आप हमेशा अलग दर्जे के खेल की अपेक्षा करते हैं।
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हम उम्मीद कर रहे हैं कि आईसीसी 2003 के नहीं बल्कि 1999 के सुपर सिक्स पॉइंट सिस्टम को अपनाएं जहां पर कैरी फॉरवर्ड करने वाली टीम को केवल उन्हीं टीमों के खिलाफ अंक मिलेंगे जो सुपर सिक्स में क्वालीफाई करने जा रही हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि क्रिकेट का का प्रसार विश्व के अन्य देशों में होना बहुत जरूरी है और कमजोर टीमों को भी विश्व कप जैसे प्रतियोगिता में फायदा मिलना चाहिए। साथ ही हमें कोई दिक्कत नहीं है अगर कमजोर टीमें लगातार जीतकर अपने प्रदर्शन में सुधार करते हुए नॉक आउट स्टेज में पहुंचती है। दिक्कत तब आती है जब कई अन्य कारक जुड़ जाते हैं और एक तरीके से लक फैक्टर भी प्रभावी हो जाता है। हालांकि विश्व कप में उलटफेर होते रहते हैं और यहां देखना दिलचस्प होगा कि क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था आने वाले विश्व कप में प्रसार और गुणवत्ता के बीच किस तरह का संतुलन बना कर चलती है।