स्पिनर के जादूगर थे पलवणकर बालू-
इस बात को समझाने के लिए आपको 100 साल से भी पीछे लेकर जाना होगा। यह बात 19वीं सदी की है उस वक्त भारतीय समाज में जाति के मुद्दों पर कट्टर रवैया अपनाया जाता था और अंग्रेज देश पर राज कर ही रहे थे। उसी उसी समय में भारत के पहले दलित क्रिकेटर के रूप में बालू का उभार हुआ। उनकी जाति के चलते उनके लिए क्रिकेटर बनना भी आसान नहीं था और यह 1892 का समय था जब बालू को पूना क्लब में ₹4 प्रति महीने के हिसाब से सैलरी पर एक नौकरी मिली।
पूना क्लब में क्रिकेट खेला जाता था लेकिन केवल ब्रिटिश लोग ही वहां खेलते थे और बालू के पास केवल पिच की देखरेख करने और प्रैक्टिस के लिए नेट को मेंटेन करने की जिम्मेदारी थी।
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नौकरी की पर प्रतिभा नहीं दबी-
बालू अपनी नौकरी को बखूबी निभाते रहे और इसी दौरान अंग्रेजों ने यह भी जान लिया कि इस खिलाड़ी के अंदर गजब का क्रिकेट टैलेंट भी छुपा हुआ है। और यह टैलेंट था बालू की गेंदबाजी का जिसने बाद में अंग्रेजों को खूब परेशान किया।
बालू के गेंदबाज बनने की कहानी भी दिलचस्प है क्योंकि पूना क्लब में बल्लेबाजी केवल ब्रिटिश लोग ही करते थे और बालू केवल गेंदबाजी ही कर पाते थे। बार-बार बॉलिंग करने से वह एक बेहतरीन बॉलर के तौर पर विकसित हो गए जिसके पास स्पिन की शानदार तकनीक थी। वे क्लब में घंटों प्रैक्टिस किया करते थे और उनकी घूमती गेंदों ने बल्लेबाजों को नचाना शुरू कर दिया था।
करामाती स्पिनर पलवणकर बालू के साथ भेदभाव होता रहा-
जिस समय भारत में अंग्रेजों का राज था तब ऐसे क्रिकेट क्लब हुआ करते थे जो अलग-अलग धर्मों के नाम पर होते थे जैसे कि हिंदू, मुस्लिम, पारसी आदि। पुणे में ऐसे ही एक क्लब सेट हुआ जिसका नाम था हिंदू क्लब और उनको यूरोपियन क्लब को हराने के लिए बालू की जरूरत थी लेकिन बड़ा सवाल यह था कि क्या हिंदू क्लब के लोग दलित बालू को अपनी टीम में लेंगे?
आखिर बालू की प्रतिभा को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता था, फैसला किया गया कि बालू को पुणे के क्लब में चांस दिया जाए। यह शानदार कदम साबित हुआ क्योंकि बालू की बेहतरीन गेंदबाजी के दम पर क्लब ने कई मैच जीते। इसके बावजूद जाति का भेदभाव जारी रहा। बालू को अलग कप में चाय मिलती, उनकी खाने की प्लेट भी अलग होती थी। यहां तक कि जब वे क्रिकेट नहीं खेल रहे होते तो पूरी तरीके से जाति का फर्क और साफ दिखाई देता था।
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इंग्लैंड गए तो काउंटी टीमों के ऑफर ठुकरा दिए-
ठीक उसी समय पुणे में प्लेग फैल गया और बालू को मुंबई में आना पड़ा जहां पर वह नौकरी ढूंढ रहे थे। उनको बाद में मुंबई के हिंदू जिमखाना टीम में सेलेक्शन मिल गया। यह एक नई टीम थी जो 1906 में बालू की धारदार गेंदबाजी के दम पर ब्रिटिश टीम को हराने का चमत्कार कर गई। अंग्रेजों को हराने से भारतीयों को बड़ा हौसला मिला क्योंकि उसी समय देश में आजादी का आंदोलन उछाल मार रहा था और लोग आजादी के लिए एकजुट होने लगे थे।
भारत ने जब पहली बार 1911 में इंग्लैंड का दौरा किया तब उन्होंने अपनी क्रिकेट टीम में बालू को भी शामिल किया। हालांकि वे हार गए लेकिन उस टूर पर बालू की परफॉर्मेंस जबरदस्त रही। बालू की बॉलिंग देखकर कई काउंटी क्लबों के मुंह में पानी आ गया और उनको अपनी टीम में शामिल करने के लिए ऑफर दिया गया लेकिन बालू तो बस भारत के लिए ही खेलना चाहते थे।
लोकमान्य तिलक और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की तारीफ-
भारत की महान शख्सियतों लोकमान्य तिलक और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने भी तब बालू की स्पिन क्वालिटी की तारीफ की थी। बालू के छोटे भाई भी हिंदू क्लब की ओर से क्रिकेट खेलते थे हालांकि यह दुर्भाग्य ही है कि इतनी प्रतिभा और परफॉर्मेंस देने के बाद भी बालू को कभी कप्तानी नहीं दी गई क्योंकि वह एक दलित थे। वे भारत के क्रिकेट इतिहास में ऐसे पहले खिलाड़ी बने जिन्होंने दलित समुदाय की ओर से इस खेल को खेला।