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मिल्खा सिंह: ट्रैक के साथ भारत के 'लव-अफेयर' का वो किस्सा जिसको ये देश कभी नहीं भूल पाएगा

नई दिल्लीः मिल्खा सिंह विभाजन में खूनखराबा देखने के बाद पाकिस्तान से दिल्ली महज 15 साल की उम्र में आ गए थे। इस दौरान उन्होंने अपने माता-पिता की दर्दनाक मौत को भी देखा था। शरणार्थी शिविर में जीवन के प्रति उनका नजरिया अभी तक परिपक्व नहीं था। उन्होंने पुराने दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास एक बूट पॉलिश बॉय, एक दुकान की सफाई करने वाले के रूप में काम किया और बीच-बीच में गुजारा करने के लिए ट्रेनों से सामान चुराया।

इन छोटे-मोटे अपराधों ने मिल्खा को जेल में डाल दिया और उनकी बहन ने उनको रिहा कराने के लिए अपने गहने बेच दिए।

मिल्खा ने सेना में शामिल होने के बार-बार प्रयास करने की कोशिश की ताकी जीवन की मुख्यधारा में किसी तरह लौटा जा सके। आखिर 1952 में उन्होंने अपने चौथे प्रयास में सफलता हासिल की और यह एक ऐसा महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, जिसकी उन्हें सख्त जरूरत थी।

मिल्खा सिंह की पहली दौड़-

मिल्खा सिंह की पहली दौड़-

वह सिकंदराबाद में तैनात थे और उन्होंने अपनी पहली दौड़ जो पांच मील की एक क्रॉस कंट्री थी, तब पूरी की जब सेना के कोच गुरदेव सिंह ने टॉप -10 में आने वालों को एक अतिरिक्त गिलास दूध देने का वादा किया। वह छठे स्थान पर रहे और बाद में 400 मीटर में विशेष प्रशिक्षण के लिए चुने गए।

उन्होंने 1956 के ओलंपिक में भी सेलेक्शन हासिल किया, जबकि उस दौड़ से एक दिन पहले उनके प्रतिद्वंद्वियों द्वारा उन पर बेरहमी से हमला किया गया था।

मिल्खा के लिए हालांकि वह खेल कुछ खास नहीं साबित हुए लेकिन उनको जरूरी अनुभव मिला और 400 मीटर स्वर्ण विजेता चार्ल्स जेनकिंस से भी उन्होंने काफी कुछ सीखा।

अपनी आत्मकथा में, उन्होंने दावा किया था कि उन्होंने उस निराशा के बाद इतना ज्यादा प्रशिक्षण लिया कि उन्हें खून की उल्टी हो गई और कई मौकों पर वे बेहोश हो गए।

उनके जीवन और करियर की कहानी 1960 की भारत-पाक स्पोर्ट्स मीट के बिना अधूरी है, जहां उन्होंने रोम ओलंपिक से पहले पाकिस्तानी अब्दुल खालिक को पछाड़ दिया था।

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अयूब खान ने जब 'द फ्लाइंग सिख' नाम दिया

अयूब खान ने जब 'द फ्लाइंग सिख' नाम दिया

उस समय खालिक को एशिया का सबसे तेज आदमी माना जाता था, जिसने 1958 के एशियाई खेलों में 100 मीटर का स्वर्ण जीता था। हालांकि सबसे पहले, मिल्खा ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया क्योंकि वह उस देश में नहीं लौटना चाहते थे जहां उनके माता-पिता को मार डाला गया था, लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें मना लिया था।

उन्होंने लाहौर में 200 मीटर की दौड़ में खालिक को हराया और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने उन्हें 'द फ्लाइंग सिख' नाम दिया।

जकार्ता में आयोजित एशियाई खेलों में 400 मीटर और 4x400 मीटर रिले स्पर्धाओं में स्वर्ण जीतने के दो साल बाद 1964 के ओलंपिक के बाद मिल्खा ने एथलेटिक्स से संन्यास ले लिया। उन्होंने भारतीय सेना छोड़ दी और दिल्ली से अपना आवास चंडीगढ़ स्थानांतरित कर लिया।

1963 में भारतीय वॉलीबॉल टीम की कप्तान निर्मल कौर से शादी-

1963 में भारतीय वॉलीबॉल टीम की कप्तान निर्मल कौर से शादी-

उन्होंने 1963 में भारतीय वॉलीबॉल टीम की कप्तान निर्मल कौर से शादी की। वे पहली बार 1956 में श्रीलंका में मिले थे। दंपति को तीन बेटियों और एक बेटे, गोल्फर जीव मिल्खा सिंह का आशीर्वाद मिला।

यह काफी आश्चर्यजनक था कि मिल्खा के कद के एथलीट को बहुत देर बाद 2001 में अर्जुन पुरस्कार की पेशकश की गई जिसको उन्होंने ठुकरा दिया था।

वास्तव में, मिल्खा अपनी रेस और पदकों से कहीं अधिक थे। वह रोम में बेहद नजदीक से हारी गई प्रतियोगिता से भी बहुत कुछ और थे। वह ट्रैक के साथ भारत के प्रेम की वो अभिव्यक्ति थे, जिसे यह देश कभी भूल नहीं सकता।

Story first published: Monday, June 21, 2021, 10:09 [IST]
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