ओलंपिक भारत की पहुंच से बाहर क्यों है?
ओलंपिक कराना बड़ा चुनौतीपूर्ण काम है। इस दौरान विश्व भर से हजारों एथलीट आते हैं जिनके साथ उनके देशों के अधिकारी और कोचिंग स्टाफ भी होते हैं।
ऐसा नहीं है कि भारत बड़े खेल की मेजबानी नहीं कर सकता क्योंकि हम कॉमनवेल्थ गेम और एशियन गेम्स जैसे खेलों की मेजबानी कर चुके हैं, लेकिन 4 साल में आने वाला ओलंपिक भारत की पहुंच से बाहर क्यों है?
जब तक 1924 में विंटर ओलंपिक का आयोजन नहीं किया गया था तब तक 4 साल में एक ही ओलंपिक आता है। विंटर ओलंपिक के पीछे तर्क यह था कि कई खेल ऐसे हैं जो सर्दियों में ही खेले जाते हैं जिनके लिए बर्फ का होना जरूरी है। इसी वजह से अब 4 साल में दो बार ओलंपिक आता है- एक समर और एक विंटर गेम्स के रूप में।
अपने वेट से डबल वजन उठाने वाली मीराबाई चानू ने पहले ही बता दिया था- इस बार मेडल पक्का है
ओलंपिक कराने की चुनौतियां-
इस समय टोक्यो में चल रहा ओलंपिक एक समर गेम है और उसके बाद 2022 में विंटर ओलंपिक्स गेम्स होंगे। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति यानी IOC ऐसी संस्था है जो इस खेल के नियम भी तय करती है और साथ ही यह भी तय करती है कि वह कहां खेला जाएगा। ओलंपिक की मेजबानी करने के इच्छुक देश को यह साबित करना होता है कि वह इतनी बड़ी भीड़ को सफलतापूर्वक हैंडल करने में सक्षम है। ऐसे देश को ओलंपिक कमिटी के सामने पूरी प्रेजेंटेशन देनी होती है क्योंकि एक ओलंपिक को कराने में कई तरह की व्यवस्थाओं का प्रबंध करना पड़ता है।
आपके शहर में दुनिया भर के एथलीटों के अलावा कई मीडिया कर्मी, कई पर्यटक भी आते हैं। ऐसे में उनके रहने का इंतजाम और उनके सिक्योरिटी उपलब्ध कराना मेजबान देश की बड़ी जिम्मेदारी है। इसके अलावा मेजबान देश का वह शहर उस तरह से होना चाहिए कि अचानक कई हजारों की संख्या में आए अतिरिक्त लोगों का भार सहन कर सके और यातायात व्यवस्था वगैरह सुचारू रूप से चलती रहे।
खर्चीले गेम्स, बीडिंग के बाद भी मेजबानी की गारंटी नहीं-
ओलंपिक बहुत ही खर्चीली गेम्स होते हैं इसलिए इसके मेजबान देश को यह भी साबित करना होता है कि इसका फायदा उस शहर के स्थानीय लोगों या बिजनेस को होगा ताकि वहां पर आने वाले समय में रोजगार पैदा होंगे और ओलंपिक कराना उस शहर के लिए लंबे समय में घाटे का सौदा साबित नहीं हो।
ओलंपिक के लिए इच्छुक देश को अपना नाम भेजना होता है जिसके बाद अगले चरण में ओलंपिक कमिटी के सामने एक मोटी फीस जमा करनी होती है, उसके बावजूद भी आपके पास यह गारंटी नहीं होती कि मेजबानी मिलनी ही मिलनी है। ऐसे में केवल वही देश बीडिंग में हिस्सा लेते हैं जिनको लगता है वे ओलंपिक को कराने में पूरी तरह से सक्षम है।
स्पोर्टस कल्चर और डेवलेप होगी तो यहां भी आ जाएगा ओलंपिक-
भारत की ओलंपिक कमेटी आईओसी के सामने मेजबानी का आवेदन भेजने से कतराती रही है। इसके अलावा हमको यह बात भी अच्छे से पता है कि भारत ने अभी तक अपनी ओलंपिक मेडल की संख्या केवल 28 (मीराबाई चानू के मेडल से पहले) ही की हुई है जबकि विश्व के अनेक छोटे-बड़े देश भारत से कहीं अधिक गुना मेडल जीत चुके हैं वहां पर स्पोर्ट्स कल्चर भारत की तुलना में कहीं ज्यादा विकसित है। विदेशों में खेलों को बहुत ज्यादा गंभीरता से लिया जाता है और प्रोफेशनलिज्म कुछ अधिक है। ऐसे में ओलंपिक का मेजबान एक ऐसा देश होना बहुत उत्साहजनक बात नहीं है जिसके यहां इस खेल को लेकर ना तो राजनीतिक स्तर पर वैसी जागरूकता है, ना जनता को अधिक ओलंपिक खेलों के बारे में जानकारियां हैं और ना ही ऐसे खिलाड़ी स्तर पर बहुत अधिक गंभीरता देखने को मिलती है।
सुधार है, पर लंबा रास्ता अभी बाकी-
हालांकि चीजें अब तेजी से बदलने लगी हैं और हम आने वाले समय में ओलंपिक स्तर पर भारत में काफी सुधार देख सकते हैं।
हालांकि हमारी नौकरशाही अपनी सुस्ती के लिए दुनिया में बदनाम हैं। यहां 2010 के कॉमनवेल्थ खेल हुए थे जिनके लिए देश का चयन 2003 में ही कर लिया गया था और विदेश के पास 7 साल का समय था कि वह कॉमनवेल्थ गेम के लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर डिवेलप कर ले लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। दुनिया में भारत की अच्छे से कॉमनवेल्थ गेम ना कराने के चलते किरकिरी भी हुई। इसके अलावा इस बात से भी कोई इंकार नहीं कि ओलंपिक एक विकासशील देश के लिए बहुत खर्चे का सौदा है।