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Tokyo Special: जब घर गिरवी रख कर ओलम्पिक खेलने गये थे भारत के पहले कुश्ती पदक विजेता

Tokyo olympics
Photo Credit: Twitter/NOC India

नई दिल्ली। साल 1952, जुलाई महीने का अंतिम हफ्ता। महाराष्ट्र के सतारा जिले का कराड रेलवे स्टेशन। स्टेशन पर उस दिन लोगों का हुजूम था। जोश और उमंग से लोगों के चेहरे दमक रहे थे। ये भीड़ जुटी थी आजाद भारत के पहले ओलम्पिक पदक (एकल स्पर्धा) विजेता का स्वागत करने के लिए। कराड रेलवे स्टेशन से पांच किलोमीटर दूर बसे गोलेश्वर गांव के खशाबा दादासाहेब जाधव ने हेलसिंकी ओलम्पिक में कुश्ती प्रतियोगिता का कांस्य पदक जीत कर इतिहास रचा था। उनके गांव के आसपास के हजारों लोग ढोल नगाड़े के साथ जुटे थे। गोलेश्वर गांव की बाहरी सीमा से लेकर कराड के महादेव मंदिर तक 150 बैलगाडियां सजधज कर तैयार खड़ी थीं। फूलमालाओं से लदे केडी जाधव अपने गांव के लोगों के बीच आये। ढोल नगाड़ों की गूंज के साथ विजय यात्रा शुरू हुई। भीड़ बढ़ती गयी। विजय जुलूस कछुए की चाल से आगे बढ़ने को मजबूर हो गया। तीन-चार किलोमीटर की इस दूरी को तय करने में उस दिन सात घंटे लगे। लेकिन किसी को कई मलाल नहीं। विशाल जनसमूह के दिल में राष्ट्र गौरव की भावना हिलोरें मार रहीं थीं। किसी खिलाड़ी के स्वागत में तब शायद ही किसी ने ऐसी भीड़ देखी थी।

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हेलसिंकी में कैसे-कैसे हुआ मुकाबला

देश की शान बढ़ाने वाले खिलाड़ी हमेशा से आम लोगों के हीरो रहे हैं। लेकिन सरकार और अधिकारियों की सोच इन 'नायकों' के बारे में क्या है? केडी जाधव ओलम्पिक में भाग लेने के लिए कैसे हेलसिंकी पहुंचे ? ये जान कर बहुत तकलीफ पहुंचती है। केडी जाधव भारत के लिए गोल्डमेडल जीत सकते थे लेकिन आयोजकों की गलती कहें या टीम मैनेजर की गलती , भारत की उम्मीदों पर पानी फिर गया। केडी जाधव के एक सहयोगी ने बताया था, जब भारतीय ओलम्पिक दल फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी पहुंचा तो कुश्ती प्रतियोगिता 20 जुलाई (1952) से शुरू थीं। केडी साहब फ्रीस्टाइल बैंटमवेट स्पर्धा में शामिल थे। उनका पहला मुकाबला कनाडा के पहलवान एड्रियन पोलिकिन से हुआ जिसमें उन्हें जीत मिली। फिर उन्होंने मैक्सिको के लियोनार्डो बसूर्तो और जर्मनी के फर्डिनांड स्मिज को हरा कर लगातार तीन मुकाबले जीते। चौथे मुकाबले में प्रतियोगी पहलवान के नहीं आने से केडी साहब को बाई मिली। उन्होंने ये चारों उपलब्धि प्रतियोगिता के पहले दिन ही प्राप्त की। उनका अगला मुकाबला जापान के शोहाची इशी से था। लेकिन अधिकारियों की गलती का खामियाजा केडी साहब को भुगतना पड़ा। उनके एक सहयोगी के मुताबिक, चार मुकाबलों के बाद अगले दिन केडी साहब ने टीम मैनेजर से पूछा कि अब उनकी कुश्ती कब है ? टीम मैनेजर ने कहा, आज रेस्ट का दिन है। तब उन्होंने सोचा कि कमरे बैठ कर क्या करेंगे, दूसरे पहलवानों की कुश्ती ही देख लेते हैं। उन्हें न जाने क्या सूझी, अपना रेसलिंग किट उठाया और जा बैठे दर्शक दीर्घा में।

मैनेजर की गलती कि आयोजकों की गलती

कुछ देर मैच देखने के बाद अचानक उन्होंने सुना कि लाउडस्पीकर पर उनका नाम पुकारा जा रहा है। वे दुविधा में पड़ गये कि आज रेस्ट है तो उनका नाम कैसे पुकारा जा रहा है ? वे वहां से उठे। जब तक दूसरी बार उनका नाम पुकारा गया तो वे अधिकारियों के टेबल के पास तक ही पहुंचे पाये थे। इस भ्रम की वजह से केडी साहब, शोहाची इशी के खिलाफ मुकाबला हार गये। फिर उनका मुकाबला सोवियत संघ के राशिद मम्मादबेयोव से था। इस मुकाबले के 15 मिनट पहले केडी साहब एक कुश्ती लड़ चुके थे। आधा घंटा के अंदर उन्हें दो कुश्ती लड़नी पड़ी। वे राशिद के खिलाफ भी मुकाबला हार गये। इसकी वजह से उन्हें कांस्य पदक से ही संतोष करना पड़ा। केडी साहब के साथ प्रतियोगिता में दो बार नाइंसाफी हुई लेकिन किसी भारतीय अधिकारी ने इस पर विरोध नहीं जताया।

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घर गिरवी रख कर गये ओलम्पिक खेलने

महाराष्ट्र राज्य का नाम उस समय बॉम्बे प्रोविंस था जिसमें गुजरात भी शामिल था। गोलेशेवर के रहने वाले केडी साहब भारत के नामी पहलवान थे। वे 1948 के लंदन ओलम्पिक में भी कुश्ती लड़ने गये थे लेकिन कोई पदक नहीं जीत पाये थे। लंदन जाने के लिए उस समय कोल्हापुर के राजा ने उनका खर्चा उठाया था। लेकिन 1952 में तो शर्मनाक स्थिति पैदा हो गयी थी। 1952 के ओलम्पिक में चयन के लिए कोलकाता में एक प्रतियोगिता आयोजित की गयी थी। केडी साहब ने इसे जीत कर हेलसिंकी का टिकट कटाया था। अब सवाल आया कि जाने का खर्चा कैसे जुटेगा ? तब केडी साहब के माता-पिता ने अपना घर गिरवी रखने का फैसला किया। उन्होंने कोल्हापुर स्थित राजाराम कॉलेज के प्रिंसिपल के पास अपना घर गिरवी रख दिय। प्रिंसिपल महोदय ने इसके बदले केडी साहब को सात हजार रुपये दिये।

एक ओलम्पिक विजेता को क्या-क्या न देखना पड़ा

अभी भी 12 हजार रुपये कम हो रहे थे। बॉम्बे प्रोविंस के दो और पहलवानों का चयन ओलम्पिक के लिए हुआ था। हेलसिंकी जाने के लिए तीनों पहलवानों ने बॉम्बे प्रोविंस के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई से मदद मांगी। केडी साहब के पुत्र के मुताबिक, तब मुख्यमंत्री कार्यालय ने अजीबोगरीब जवाब दिया था कि प्रतियोगिता खत्म होने के बाद सम्पर्क कीजिए। लेकिन एक अन्य श्रोत के मुताबिक केडी साहब के बार-बार मदद मांगने पर राज्य सरकार ने चार हजार रुपये दिये थे। लेकिन इससे भी बात नहीं बनी। आखिरकर केडी साहब के घर वालों को चंदा मांगना ही पड़ा। लेकिन जब वे हेलसिंकी से पदक जीत कर बॉम्बे आये तो वही मुख्यमंत्री मोरार जी देसाई उन्हें माला पहनाने के लिए पहुंच गये। केडी साहब ने भारत लौट कर इनामी कुश्ती प्रतियोगिता लड़कर पैसा कमाया और अपना गिरवी रखा हुआ घर छुड़ा लिया। फिर 1955 में राज्य सरकार ने खेल कोटा के तहत उनकी नियुक्ति पुलिस सब इंसपेक्टर के पद पर की। 1982 में वे असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर बने थे। इसके छह महीना के बाद ही वे रिटायर हो गये थे। वे इतने विनम्र और सहज थे कि 27 साल की सेवा के दौरान आधिकतर लोग जान ही नहीं पाये कि वे ओलम्पिक के कांस्य पदक विजेता हैं। मरणोपरांत 2001 में उन्हें अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

Story first published: Friday, June 25, 2021, 17:13 [IST]
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