"अगर भारतीय मुक्केबाज़ एक या दो गोल्ड मेडल जीतकर कुल 7-8 पदक के साथ वापस आते हैं तो मैं समझूंगा हमारा अभियान सफल रहा. लेकिन अगर हम बिना गोल्ड के आए तो मुझे निराशा होगी."
ये कहा था भारतीय बॉक्सिंग दल के चीफ़ कोच सेंटियागो नीवा ने टीम के ऑस्ट्रेलिया जाने से पहले.
ऐसा ही दिलासा पाँच बार की विश्व चैम्पियन मैरी कॉम ने भी दिया.
भले ही ये दोनों उम्मीद पर खरे भी उतरें, लेकिन ये तय है कि चार अप्रैल से गोल्ड कोस्ट में शुरू होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स में बॉक्सिंग में मेडल जीतना इतना आसान नहीं होगा.
महिलाओं के लिए तो शायद यह काम और भी मुश्किल हो.
साल 2014 के ग्लासगो खेलों में महिला बॉक्सिंग को पहली बार शामिल किया गया था.
और पिछले चार सालों में महिला बॉक्सिंग में तेज़ी से सुधार हुआ है और खेल बहुत लोकप्रिय भी हुआ. ज़ाहिर है मुकाबला ज़बरदस्त होगा.
स्वीडन के राष्ट्रीय कोच रह चुके नीवा के अनुसार, इंग्लैंड, आयरलैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया से तगड़े मुक्केबाज़ आएंगे और मेडल के लिए भारतीय पुरुषों को महिलाओं से ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी.
भारतीय टीम में कुल मिलाकर 12 बॉक्सर हैं जिनमें चार महिलाएं हैं.
यूं तो हर खेल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन लिए बहुत मशक्क़त करनी पड़ती है लेकिन बॉक्सिंग जैसे खेल में मेहनत कुछ ज़्यादा ही करनी पड़ती है.
इस खेल में हारने वाला तो मार खाता ही है, जीतने वाले का भी बुरा हाल हो जाता है.
साथ ही ड्रॉ यानी कौन किसका प्रतिद्वंद्वी होगा, यह भी बहुत अहम होता है. इसमें लक या भाग्य का बहुत बड़ा किरदार होता है.
और जब 4 अप्रैल को ड्रॉ घोषित होगा तभी सही मायने में पदकों की रेस शुरू होगी.
दो बार की एशियन गेम्स चैम्पियन मैरी कॉम ने भी ड्रॉ की तरफ इशारा करते हुए कहा, "उनके वर्ग (45-48 किलो) में कम से कम 8 बॉक्सर तो होंगे ही और मुझे लगता है, मुझे गोल्ड मेडल के लिए तीन मुक़ाबले तो खेलने पड़ेंगे. गोल्ड लाने के लिए मैं अपनी पूरी जान लगा दूँगी.''
मैरी के दृढ़ निश्चय के पीछे कुछ ऐसी बातें हैं जो उनको गोल्ड कोस्ट में अपना सबसे अच्छा प्रदर्शन करने के लिए बाध्य करेंगी.
मैरी पाँच बार की वर्ल्ड चैम्पियन हैं. उनके पास ओलंपिक मैडल है. एशियन गेम्स की चैम्पियन हैं. हां, अगर कोई मेडल नहीं है तो वो है कॉमनवेल्थ गेम्स में.
साल 2014 में ग्लास्गो के लिए वो क्वालीफ़ाई नहीं कर सकी थीं.
60 किलो वर्ग में सरिता देवी के लिए भी पदक का रास्ता इतना आसान नहीं होगा.
अगर ड्रॉ में सरिता का मुक़ाबला ऑस्ट्रेलिया की अन्जा स्ट्रैडसमैन से पड़ गया तो ये तय है कि मुक़ाबला हॉल में बैठे दर्शकों के लिए और टीवी के लिए सुपरहिट होगा, चाहे जीते कोई भी.
2014 के इंचियोन एशियन गेम्स में विवादित मुक़ाबले के बाद सरिता को एक साल बाहर रहते हुए रिंग में वापस आने के लिए बहुत ज़बरदस्त मेहनत करनी पड़ी. इसलिए ये कांटे की टक्कर होगी.
जहाँ तक पुरुषों का सवाल है तो भारत के लिए विदेश में गोल्ड मेडल क़मर अली ने 2002 मैनचेस्टर में जीता था.
इसके अलावा साल 2006 में अखिल कुमार ने भी मेलबर्न में गोल्ड मेडल जीता.
इस बार उम्मीद टिकी हैं मनोज कुमार और विकास कृष्णन पर. दोनों ही बॉक्सर अच्छी फ़ॉर्म में हैं.
जहाँ तक विकास का सवाल है तो उन्होंने अपने पहले एशियन गेम्स ग्वांग्ज़ू में गोल्ड जीता था.
गोल्ड कोस्ट गेम्स उनके लिए पहले कॉमनवेल्थ गेम्स हैं. तो क्या विकास के लिए गोल्ड कोस्ट भी लकी होगा?
कम से कम विकास को तो पूरी उम्मीद है.
उनका कहना है कि उन्होंने ओलंपिक के अलावा हर प्रतियोगिता में पदक जीता है. लेकिन अब उन्हें उम्मीद है गोल्ड की.
अमूमन किसी भी भारतीय खेल दल के विदेश जाने से पहले विवाद खड़े होते हैं और गोल्ड कोस्ट खेलों से पहले भी ऐसा ही हुआ.
टीम का चयन ट्रायल्स के आधार पर ना होकर अंकों के आधार पर हुआ जिसकी वजह से बेहतरीन मुक्केबाज़ शिवा थापा टीम में जगह नहीं पा सके.
भारतीय दल को उनकी कमी ज़रूर खलेगी. साथ ही भारतीय कोचों को भी खेलों से पहले कैंप के लिए सिर्फ़ कैनबरा तक ही सीमित रखा गया है.
गोल्ड कोस्ट में विदेशी कोच ही बॉक्सरों के साथ रहेंगे. इस क़दम का सही आंकलन खेलों के बाद ही पता चलेगा.
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