संकरी गलियों में फ़ुटबॉल खेलते बच्चे, ब्राज़ील फ़ुटबॉल टीम की जर्सी पहने कुछ नौजवान, दीवारों पर चिपके कुछ पोस्टर जिन पर फ़ुटबॉल विश्व कप से जुड़े कुछ नारे लिखे हैं.
इन सब के बीच चौराहे पर लगी है ब्राज़ील के मशहूर फ़ुटबॉल खिलाड़ी पेले की मूर्ति. इन दिनों ये नज़ारा है पूर्वी बेंगलुरु के गौतमपुरम इलाक़े का.
कोई भी इस इलाक़े को देखकर इसकी तुलना ब्राज़ील के साओ पाउलो शहर से कर सकता है. क्रिकेट प्रेमियों के देश में गौतमपुरम एक अद्वितीय जगह है.
गौतमपुरम को बेंगलुरु में एक तमिल बहुल इलाक़ा माना जाता है. साल 2001 की जनगणना के अनुसार, बेंगलुरु में 18.4 फ़ीसद आबादी तमिल बोलती है. वहीं आधिकारिक रूप से कर्नाटक में कन्नड़ बोलने वालों के बाद तमिल बोलने वालों की आबादी सबसे ज़्यादा है.
गौतमपुरम, बेंगलुरु के हलासुरु इलाक़े में स्थित है. औपनिवेशिक युग में हलासुरु को हथियारबंद ब्रिटिश सैनिकों का गढ़ माना जाता था.
इतिहासकार अरुण प्रसाद कहते हैं कि जब 1800 के दशक में ब्रिटिश सेना ने बेंगलुरु पर कब्ज़ा किया था, तो गौतमपुरम के आज के निवासियों के पूर्वजों ने इस जगह अपना ठिया जमाया था.
ये लोग मूल रूप से तमिल थे. ये तमिलनाडु से कर्नाटक आने वाले सबसे शुरुआती प्रवासी कहे जा सकते हैं.
अरुण प्रसाद के अनुसार, ये तमिल लोग ब्रिटिश कंपनी के लिए काम करते थे. इनका काम ब्रिटिश अफ़सरों के लिए खाना बनाना, उनके जूते पॉलिश करना, उनके कपड़े धोना और लकड़ी के औजार तैयार करना था.
भारतीय फ़ौज के मद्रास इंजीनियर ग्रुप से सटे गौतमपुरम ने भारत को कई नामी फ़ुटबॉल खिलाड़ी दिए हैं. इनमें सत्तार बशीर, इथिराज, कौशल राम जैसे नाम शामिल हैं.
ये वो खिलाड़ी हैं जिन्होंने 1950 से 1970 के दशक में भारत का नेतृत्व किया. इसी दौर को भारत में फ़ुटबॉल का सुनहरा दौर कहा जाता है.
गौतमपुरम से वास्ता रखने वाले खिलाड़ी न सिर्फ़ भारतीय फ़ुटबॉल टीम के लिए खेले, बल्कि भारत के कई नामी फ़ुलबॉल क्लबों, जैसे चेन्नई सिटी एफ़सी और मोहन बागान समेत राज्यों की फ़ुटबॉल टीमों में भी उन्होंने अपनी जगह बनाई.
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1800 के दशक में ब्रिटिश सेना तमिलनाडु से जिन नौकरों को अपने काम करवाने के लिए बेंगलुरु लेकर आई थी, उनमें से अधिकतर बेंगलुरु आर्मी कैंट के आस-पास ही बस गए.
57 साल के पूर्व अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल खिलाड़ी सी. रवि कुमार गौतमपुरम में रहते हैं. वो 1970 से 1980 के दशक में 6 बार भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं.
वो कहते हैं, "ब्रिटिश सेना के अफ़सर गौतमपुरम इलाक़े के फ़ुटबॉल ग्राउंड में फ़ुटबॉल खेला करते थे. ये एक बहुत बड़ा ग्राउंड था. अक्सर ऐसा हुआ करता था कि जब टीम बाँटी जाती तो उनके सदस्य कम पड़ जाते. ऐसी स्थिति में वो भारतीय नौकरों को भी अपने साथ खेलने के लिए बुला लेते."
रवि कुमार बताते हैं, "1947 में जब अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ा तो वो अपनी गेंद, खेल का अन्य सामान, वर्दी और गोल पोस्ट वगैरह गौतमपुरम के निवासियों को देकर गए थे. वहीं से इस इलाक़े का फ़ुटबॉल से मज़बूत कनेक्शन बना."
लोग बताते हैं कि उस वक़्त गौतमपुरम के लोगों ने ब्राज़ील का खेल देखकर फ़ुटबॉल के गुण सीखे. तभी से फ़ुटबॉल का शौक़ यहाँ के लोगों के लिए किसी अन्य खेल से ज़्यादा अहम और बड़ा है.
पूर्व फ़ुटबॉल खिलाड़ी सी. रवि कुमार ने बताया कि उनके पिता भी ब्रिटिश फ़ौज के अफ़सरों के लिए खाना बनाने का काम करते थे.
रवि कुमार कहते हैं कि उनकी पीढ़ी के लिए फ़ुटबॉल ग़रीबी और भूख से बचने का ज़रिया थी. उस दौर में फ़ुटबॉल खेलने में माहिर होने का मतलब किसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में नौकरी की भारी संभावना से था.
रवि कहते हैं, "भारतीय टेलीफ़ोन इंडस्ट्रीज़, हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, कोयला इंडिया लिमिटेड, एलआरडीई, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड और हिन्दुस्तान मशीन टूल्स जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियाँ गौतमपुरम से खिलाड़ी ले जाती थीं. इस वजह से इलाक़े के बहुत सारे लड़कों को रोज़गार मिला."
किसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में नौकरी मिलना जीवन में स्थिरता के लिए आज भी महत्वपूर्ण समझा जाता है, लेकिन 70-80 के दशक में ये नौकरियाँ और भी मूल्यवान थीं.
इन नौकरियों ने इस इलाक़े को समृद्ध बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई. आर्थिक तौर पर देखें तो आज गौतमपुरम एक मध्यम वर्गीय परिवारों का इलाक़ा कहा जाता है.
यहाँ के नौजवान आज भी फ़ुटबॉल को पूजते हैं और इस खेल का सम्मान करते हैं. लेकिन उनकी नज़र में ये खेल, उनकी ज़रूरत, उनका प्रेम या भूख नहीं बचा है.
गौतमपुरम स्टेडियम एक नियमित फ़ुटबॉल मैदान की तुलना में आधे से थोड़ा अधिक आकार का है.
इसमें एक तरफ़ कुछ गोल पोस्ट हैं और दूसरी तरफ कुछ ठोस स्टैंड. किसी भी शाम आप यहाँ आएंगे तो 75 से ज़्यादा बच्चे एक वक़्त में आपको अपने खेल का अभ्यास करते मिलेंगे.
ये कोई विश्व स्तर की जगह नहीं है, लेकिन मैदान पर मेहनत करते बच्चों को देखकर लगता है कि इस खेल की स्थिति में थोड़ा सुधार होना चाहिए. और शायद ये बच्चे भी इससे बेहतर स्थिति में खेलने के हक़दार हैं.
गौतमपुरम की आज की पीढ़ी अपने बुज़ुर्गों की तुलना में इस खेल के लिए अलग भावना रखती है.
बालू जूनियर टीम के लिए राष्ट्रीय स्तर तक खेल चुके हैं. फ़िलहाल वो हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के लिए काम करते हैं और शाम में गौतमपुरम के मैदान में बच्चों को फ़ुटबॉल की ट्रेनिंग देते हैं.
बालू कहते हैं, "हमने फ़ुटबॉल को चुना था क्योंकि हमें नौकरी की ज़रूरत थी. हमें खिलाड़ियों के लिए आरक्षित नौकरियों को हासिल करना था. लेकिन आज के बच्चे फ़ुटबॉल को करियर के तौर पर देखते हैं. वो चाहते हैं कि वो किसी क्लब के लिए खेलें. नए क्लब अब बन रहे हैं. अगर स्थिति थोड़ी सुधर जाए तो इन बच्चों के लिए असीमित संभावनाएं पैदा हो सकती हैं."
यहाँ मौजूद अन्य लोग मानते हैं कि इन युवाओं के पास फ़ुटबॉल की एक मज़बूत विरासत तो है ही साथ ही है अपने जुनून का पीछा करने का एक बड़ा मौक़ा भी. बस कुछ सुविधाएं इन्हें मिल जाएं तो बात बन जाए.
ये भारत के लिए एक अच्छी स्थिति है. साथ ही ये फ़ीफ़ा के पूर्व अध्यक्ष सेप ब्लैटर की बात याद दिलाता है, जिन्होंने भारत का वर्णन करते हुए कहा था कि फ़ुटबॉल के मामले में भारत एक सोया हुआ विशालकाय दैत्य है.
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