शुरुआती जीवन में तमाम मुश्किलों को झेला, जेल भी गए-
मिल्खा आजाद भारत के सबसे बड़े खेल आइकन में से एक थे। उन्होंने जीवन की शुरुआती अवस्था में जो भुगता उससे वह अंदर से पीढ़ित थे। उन्होंने विभाजन के दौरान उनके माता-पिता की निर्मम हत्या देखी। दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में जीवित रहने के लिए छोटे मोटे अपराधों में भी लिप्त हो गए थे, जिनके चलते जेल भी जाना पड़ा और सेना में शामिल होने के तीन प्रयासों में विफल रहे।
कौन सोच सकता था कि ऐसे आदमी को 'द फ्लाइंग सिख' की उपाधि मिलेगी? लेकिन मिल्खा ने इसे हासिल किया।
उन्होंने ट्रैक को वैसा ही सम्मान किया जैसे एक मंदिर में देवता की पूजा करते हैं। उसके लिए दौड़ना उनका भगवान और प्रेमिका दोनों के जैसा था और इसी से ही उन्होंने वह असल कहानी बुनी जो किताब में परी कथा सी अद्भुत लगती है।
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जब पीएम नेहरू ने मिल्खा सिंह के कहने पर राष्ट्रीय छुट्टी घोषित की-
पदकों की बात करें तो, महान एथलीट चार बार के एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता और 1958 के राष्ट्रमंडल खेलों के चैंपियन थे, लेकिन उनका सबसे बड़ा प्रदर्शन 1960 के रोम ओलंपिक के 400 मीटर फाइनल में चौथा स्थान हासिल करना था। वह पदक हासिल करने से मामूली अंतर से चूक गए।
मिल्खा का असल योगदान मेडल हासिल करने से कही ज्यादा बड़ा है। उन्होंने ही वैश्विक पटल पर भारतीय एथलेटिक्स का डंका बजाया था जब उन्होंने 1958 के ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल खेलों की तत्कालीन 440 गज की दौड़ में स्वर्ण जीता था।
वह राष्ट्रमंडल खेलों में व्यक्तिगत स्वर्ण जीतने वाले पहले भारतीय एथलीट बने, जिसके कारण तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनके अनुरोध पर राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा की। मिल्खा ने 80 रेसों में से 77 जीत के साथ अपने करियर का रिकॉर्ड बनाया।
'रेस ऑफ लाइफ' हारने का मलाल ताउम्र रहा-
मिल्खा सिंह की रेस ऑफ लाइफ फिर भी रोम ओलंपिक ही रहेगा जहां उन्होंने 400 मीटर का फाइनल 45.6 सेकंड में पूरा किया, जो कांस्य पदक के निशान से 0.1 सेकंड कम था। मिल्खा सिंह को ताउम्र इस बात का पछतावा रहा कि उन्होंने अगर तब सही से फैसले लिए होते तो देश को एक पदक मिल चुका होता। विश्वास करना मुश्किल है लेकिन वह अपने परिस्थितियों में भांपने में चूक गए और थोड़े धीमे पड़ गए क्योंकि उनका मकसद अंतिम 150 मीटर में पूरी ऊर्जा झोंकना था। वह उस याद से तड़पता रहे, उनका कहना था जीवन की केवल दो घटनाओं को वह नहीं भूल सकते, एक पाकिस्तान में उनके माता-पिता की हत्या और दूसरा रोम ओलंपिक में मामूली चूक से मिली हार।
मिल्खा ने अपनी 160 पन्नों की आत्मकथा में लिखा है, "मैं अपने पूरे करियर में जिस एक पदक के लिए तरस रहा था, वह मेरी उंगलियों से फिसल गया था।"
इटली की राजधानी में उनका समय 38 वर्षों तक एक राष्ट्रीय रिकॉर्ड बना रहा जब तक कि परमजीत सिंह ने 1998 में कोलकाता में एक राष्ट्रीय रेस में इसे तोड़ा।
मिल्खा ने अपना रिकॉर्ड तोड़ने वाले को ₹2 लाख का नकद पुरस्कार देने का वादा किया था, उन्होंने हालांकि ऐसा नहीं किया क्योंकि उनका मानना था कि परमजीत की उपलब्धि किसी विदेशी प्रतियोगिता में हासिल करने पर ही गिनी जाएगी।